हमारा
जांगिड ब्राह्मण समाज बड़ा ही भाग्यशाली है कि उसने भगवान विश्वकर्मा को अपने
आराध्य देव के स्वरूप में ह्र्दयंगम किया। इस संबंध में कई प्रश्न उठ खडे हुये
हैं। कोई पूछता है कब और सर्व प्रथम किस ऋषि-महर्षि अथवा अन्य महापुरुष ने यह
नामकरण किया? इस नाम को किस मतलब से लिया? इसके पीछे क्या उद्देश्य रहा होगा? अब
लोग इसका क्या अर्थ लगाते हैं? क्या ये देव शिल्पी थे? या परम पुरुषोत्तम
परमात्मा? इत्यादि-इत्यादि।
बगैर शास्त्रों में
उलझे यदि हम अपने आराध्य देव का ज्ञान साधारण मानवीय विचार अथवा स्वतंत्र बुद्धि
से अनुमान के आधार पर विश्लेषण करें तो सर्वप्रथम हमारे मन में स्वाभाविक धारणा
उत्पन्न होती है कि इस पृथ्वी लोक में मानव कब से विद्यमान है और कब वह सोच-विचार
के स्तर पर पहुंचा, कि “विश्व” किसे कहते हैं। मानव ने इस अलौकिक धराधाम पर विचरण
कर देखा कि यहां कैसे-कैसे पहाड़ हैं, कैसी जलधारायें (नदियां) बह रही हैं,
कैसे-कैसे विशाल समुद्र हैं, कैसे-कैसे गहन जंगल हैं, कैसी समतल कृषि योग्य भूमि
है? इस प्रकार पृथ्वी के भूतल का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद मानव ने आकाश की और
देखा । उसमें सूर्य-चंद्र-ग्रह-नक्षत्र, तारिकायें देख वह और भी अधिक
आश्चर्यचकित हो गया। यह नजारा देखकर मानव
ने इस असीम दृश्य जगत को “विश्व” कहकर पुकारा। इस अत्यंत अद्भूत रचना को देखकर वह
विस्मय सागर मे डूब गया। वास्तव में यह सृष्टि अत्यंत विस्मयकारी है ही। यह
विस्मयकारी दृश्य देखकर बुद्धि सम्पन्न मानव ने सोचा इस सम्पूर्ण विराट दृश्य को
बनाने वाला भी तो कोई होना चाहिये? उसका इतने सुचारु रूप से नियंत्रण-संरक्षण करने
वाला भी तो कोई होना चाहिये?
अब हमें यह कहने में कोई संकोच
नहीं होना चाहिये कि हमारे विद्वान महापुरुषों ने इस भौतिक जगत के निर्माता के रुप
में “भगवान श्री विश्वकर्मा” को स्वीकारा। अर्थात “विश्व” से तो यह सर्व दृश्य जगत
को समझा और “कर्मा” के रूप में उस अदृश्य शक्ति को स्वीकारा जिसने इस जगत की रचना
की जो इसकी सुरक्षा व संचालन कर रहा है। यही विश्व का परमपिता परमेश्वर है, विधाता
है, परब्रह्म परमात्मा है, भगवान है। अनन्त नामों से पुकारा जाता है। कोई God
कहता है तो कोई “अल्लाह”
कहकर संबोधित करता है।
यह कहना कठिन नहीं है, किस
साल-सम्वत अथवा युग में हमारे मनीषी पूर्वजों ने इस सृष्टि को निर्माता का नामकरण
“भगवान श्री विश्वकर्मा” से किया? क्योंकि सृष्टि रचियता का तर्क संगत नामकरण
सर्वप्रथम हमारे पूर्वजों द्वारा किया गया, इसमें तनिक भी संदेह नहीं हो सकता। यही
कारण है कि प्राचीन काल से भगवान श्री विश्वकर्मा के मन्दिर बनते आ रहे हैं और आज
भी बन रहे हैं। हमारा समाज आज भी उसी तत्परता एवं भक्ति भाव से भगवान श्री
विश्वकर्मा जी का यजन-पूजन कर रहा है। सर्व समर्थ-सर्व व्यापी-सर्व शक्तिमान
परमेश्वर की आराधना का यही तो वैज्ञानिक एवं तर्क संगत मार्ग है।
हमारी आर्य संस्कृति हजारों साल
पुरानी है। एक समय वैदिक काल का बोलबाला था। हमारे वेद-शास्त्रों में उसका विश्द
विवरण मिलता है। विदेशी आताताइयों के आगमन से हमारी संस्कृति भारी आघातों को सहती
आई है। कई प्राचीन ग्रंथ लुप्त हो गये,कई आताताइयों ने नष्ट कर दिये और कई विदेशी
संग्रह कर्ताओं के हवाले हो चुके हैं। यही कारण है कि हमारे समाज के सम्बन्ध में
जो प्राचीन पठनीय सामग्री थी वह लुप्त हो चुकी है। उसके अभाव में हमारे समाज की
सांस्कृतिक विरासत समाप्त सी प्रतीत होती है। फिर भी प्राचीन नामकरण के आधार पर हम
कम से कम इतना अनुमान तो लगा सकते हैं कि हमारे प्रबुद्ध दार्शनिक मनीषी पूर्वज ऋषि-मुनियों
ने इस विस्मयकारी अखण्ड ब्रह्माण्ड के आधारभूत इसके रचनाकार, संरक्षक, पालनहार एवं
संवरण कर्ता के रूप में देवाधिदेव भगवान श्री विश्वकर्मा जी को ही अपना आराध्य देव
चुना। यह परम्परा अनादिकाल से ज्यों की त्यों बिना किसी विकृति या परिवर्तन के आज
तक बदस्तूर चली आ रही है और आज भी भगवान विश्वकर्मा जी को भव्य मंदिरों में
प्रतिष्ठित कराया जा रहा है और विशुद्घ भक्ति भाव से निरंतर पूजन-यजन किया जा रहा
है।
यह सत्य है कि इसके बाद रचे गये
धर्मशास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय के सम्बन्ध में विविध विवेचन
हुआ हो। हमारे परम पावन शास्त्र श्री मद् भागवत महापुराण में ही (द्वितीय स्कन्ध
पंचम अध्याय) ब्रह्माजी द्वारा ब्रह्मऋषि नारद को सृष्टि रचना का क्रम बताने का
उल्लेख है। पुनः तृतीय स्कन्ध अध्याय 5 से 12 में इसी विषय पर विस्तार से चर्चा
हुई है। इस प्रमाणिक सद्गन्थ में भी एक स्थान पर भगवान विश्वकर्मा के सम्बन्ध में
उल्लेख है। लेकिन उनके प्राकट्य के विषय में कोई चर्चा देखने में नहीं आती। अष्टम
स्कन्ध अध्याय 13 में यह उल्लेख अवश्य है कि भगवान सूर्य देव की दो पत्नियां
संज्ञा व छाया थीं वे भगवान विश्वकर्मा जी की पुत्रियां थीं। आगे चल कर उनकी
सन्तानों के विषय में चर्च मिलती है।
भले ही दीर्घ कालीन पौराणिक कथायें
हमारी अनवरत मान्यताओं से मेल नहीं भी खाती हो फिर भी यह जानकर हमारा विश्वास और
अधिक सुदृढ़ हो जाता है कि पुराणों में भी
कहीं-कहीं हमारे आदिदेव भगवान श्री विश्वकर्मा जी का किसी न किसी रूप में उल्लेख अवश्य
मिलता है। इससे स्पष्ट संकेत भी मिलता है कि प्रचीनतम काल से यानी इन प्राचीन धर्म
शास्त्रों से भी पहले हमारे आराध्य देव मानव समाज के मानसिक पटल पर विद्यमान थे।
इस सृष्टि के परमपिता परमेश्वर के रूप उनके प्रति हमारी मान्यता शत-प्रतिशत
शास्त्र सम्मत होते हुए वैज्ञानिक दृष्टि
से भी सर्वथा उचित है।
-तुलसी राम शर्मा (से.नि. सेशन जज)
जयपुर फोन – 0141-2706129
हमारी आर्य संस्कृति हजारों साल
पुरानी है। एक समय वैदिक काल का बोलबाला था। हमारे वेद-शास्त्रों में उसका विश्द
विवरण मिलता है। विदेशी आताताइयों के आगमन से हमारी संस्कृति भारी आघातों को सहती
आई है। कई प्राचीन ग्रंथ लुप्त हो गये,कई आताताइयों ने नष्ट कर दिये और कई विदेशी
संग्रह कर्ताओं के हवाले हो चुके हैं। यही कारण है कि हमारे समाज के सम्बन्ध में
जो प्राचीन पठनीय सामग्री थी वह लुप्त हो चुकी है। उसके अभाव में हमारे समाज की
सांस्कृतिक विरासत समाप्त सी प्रतीत होती है। फिर भी प्राचीन नामकरण के आधार पर हम
कम से कम इतना अनुमान तो लगा सकते हैं कि हमारे प्रबुद्ध दार्शनिक मनीषी पूर्वज ऋषि-मुनियों
ने इस विस्मयकारी अखण्ड ब्रह्माण्ड के आधारभूत इसके रचनाकार, संरक्षक, पालनहार एवं
संवरण कर्ता के रूप में देवाधिदेव भगवान श्री विश्वकर्मा जी को ही अपना आराध्य देव
चुना। यह परम्परा अनादिकाल से ज्यों की त्यों बिना किसी विकृति या परिवर्तन के आज
तक बदस्तूर चली आ रही है और आज भी भगवान विश्वकर्मा जी को भव्य मंदिरों में
प्रतिष्ठित कराया जा रहा है और विशुद्घ भक्ति भाव से निरंतर पूजन-यजन किया जा रहा
है।
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