पंचशील
वैश्विक धर्म-ग्रन्थ
पृष्ठभूमि में वेद का स्थान निर्विवाद रूप से सार्वभौम, सर्वहितकारी एवं
सर्वश्रेष्ठ है। वेद में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु
निरामया, सत्यमेव जयते, आदि मौलिक एवं महानतम् सिद्धांत पूर्णरूपेण जगत परिव्याप्त
है। इन्हीं के अन्तर्गत पंचशील वैश्विक स्तर पर भौतिक सुख एवं शांति हेतु
सर्वोत्तम, अपरिहार्य एवं सर्व व्यापक सिद्धांत है। धर्म-प्राण भारतीय संस्कृति के
अनुसार पंचशील के वेद निर्दिष्ट पांच आदर्श नियम निम्नवत् हैं। जो भारतीय संविधान एवं
राजनीति के आधार अंग हैं।
1.
स्वत्व की रक्षा
2.
अनाक्रमण की नीति
3.
स्वतंत्रता
4.
समानता एवं सहयोग
5.
सह अस्तित्व
1.
स्वत्व की रक्षा
· व्याचिष्टे
बहुपाय्ये यतेमहि स्वराज्ये (ऋग्वेद 5-66-6) अर्थात हम इस विस्तृत और बहु उपायों
एवं वीरों से रक्षा करने योग्य स्वराज्य को चलाने का यत्न करें।
· मागृधः
कास्यस्विद् धनम् । ( यजुर्वेद 40-1) अर्थात किसी के धन-अधिकार को मत छीनें।
· एतां
देव सेनाः सूर्य केतवः सचेतसः। अभित्रान् नो जयन्तु स्वाहा।। (अथर्ववेद 5-21-12)
अर्थात ये वीर पुरुषों की सेना, जो समान चित्तवाली है और सूर्य के ध्वजा वाली है,
वे शत्रुओ को जीतें।
· सत्यं
वृहहतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञं लोकं पृथ्वीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य
यत्नयुरु लोकं पृथ्वी नः कृणेतु।। (अथर्ववेद 12-1-1) अर्थात् सत्य, महत्वकांक्षा,
नियम पालन, दीक्षा (दृढ़ संकल्प या दक्षता), तप (तितिक्षा), ब्रह्म (संयम या
ज्ञान), यज्ञ(देवपूजा, संगतिकरण, दान) यह आठ गुण पृथ्वी को धारण करते हैं। वह जो
भूत भविष्य की पालक है, हमारे लिये विस्तृत स्थान देवे। अर्थात् जो अपने देश की
रक्षा करना चाहे उसे इन गुणों को अपनाना होगा। वर्तमान भारतीय राजनीति का यह पहला
संकल्प है। “mutual respect for each others territorial intequity
and sovereighty” इस नियम के पालन के लिये ‘भूमि सूक्त अथर्ववेद
12-1’ और ‘स्वराज्यः सूक्त ऋग्वेद 1-80’ में दिये हुए सिद्धांतों पर चलना पड़ेगा।
2.
अनाक्रमण की नीति
· माहिंसी
तन्वा प्रजाः। (यजुर्वेद 12-32) अर्थात प्रजा के शरीर पर हिंसा मत करो।
· कायेहि
मनसस्यतेअपक्राम परश्चर। परो निऋत्या आचक्ष्व बहुधा जीवतोमनः।। (ऋग्वेद10-164-1)
अर्थात् हे पाप संकल्प! दूर हो, परे चला जा! तू दुःखदायी पापवृत्ति के लिये
बार-बार कहा करता है, हट जा दूर। इस मंत्र से स्पष्टतः अहिंसा का आदेश है।
· न
मापासो मनामहो नारायसो न जल्हवः। यदिन्न्विन्द्रं वृषणां सचा सुते सखाय कृणवामहै।।
(ऋग्वेद 8-61-11) अर्थात हम पापी होकर विचार नहीं करते। हम यह भी नहीं विचारते कि
दूसरों को अधिकार नहीं दिया जावे। हम प्रकाश या ज्ञान से शून्य नहीं हैं। जब-जब भी
हम लोग ऐश्वर्यवान एवं बलवान इन्द्र को अपना सखा बनाते हैं तब यही हमारी नीति रहती
है। यह भारतीय राजनीति पंचशील का दूसरा नियम (संकल्प) है। यथा- “Mutual
non-agression”
3.
स्वतंत्रता
· योअस्मान्
द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्मे दध्मः (अथर्ववेद 3/27/1-2) अर्थात जो हमारे
साथ द्वेष करता है तथा जिससे हम विद्वेष करते हैं उन रिपुओं को हम आप के नियंत्रण
में डालते हैं।
· अदीनाः
स्याम शरदः शतम्...........................(यजुर्वेद 36-24) अर्थात हम सौ वर्षों
या अधिक वर्षों तक दीनता रहित होकर रहें, किसी के अधीन न हों । (इस मंत्र में व्यक्तिगत
एवं देश दोनों की स्वतंत्रता संरक्षित है)।
· देवा
भागं यथ पूर्वे संजाना नान उपासते। (ऋग्वेद 10-191-2) अर्थात अपने भाग में आई हुई
सम्पदा को ज्ञानीजन भोगते हैं, वे छीनाझपटी नहीं करते हैं।
· तेनत्यक्तेन
भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद धनम् (यजुर्वेद 40-1) अर्थात अपने भाग में मिली वस्तु
का उपभोग करो, दूसरे के अधिकार पर हस्तक्षेप मत करो।
“Non-Interference in each others internal
affairs”
4.
समानता और सहयोग
· ते
अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदोअमध्यमासे महसा विवावृधुः। (ऋग्वेद 5/59/6) अर्थात उन
मरुद्गुणओं में कोई ज्येष्ठ नहीं है, कोई कनिष्ठ नहीं है सभी समान हैं।
· अज्येष्ठासो
अकनिष्ठास ए ते स भ्रातरो वावृधुः सौभागाय। (ऋग्वेद 5/60/5) अर्थात उन मरुद्गुणओं
में कोई ज्येष्ठ नहीं है कोई कनिष्ठ नहीं है। ये परस्पर भ्रातभाव से संयुक्त रहते
है।
· संगच्छध्वं
सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। (ऋग्वेद 10/191-2) अर्थात हे स्तोताओं (मनुष्यों)
आप परस्पर मिलजुल कर चलें, परस्पर मिलकर स्नेह पूर्वक वार्तालाप करें। आपके मन
समान विचारधारा वाले होकर ज्ञानार्जन करें।
· सघ्रीचीनान
वः स्मनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान। (अथर्ववेद 3/30/7) अर्थात हम आपके
मन को समान बनाकर एक जैसे कार्य में प्रवत्त करते हैं और आपको एक जैसा अन्न ग्रहण
करने वाला बनाते हैं। यह भारतीय राजनीति पंचशील का चतुर्थ संकल्प है- “Equality
and Mutual Benefit”
5.
सह अस्तित्व
· समानी
व आकूतिः समाना ह्रदयामि वः। समानमस्तु वो मनो यथा व सुसहासति।। (ऋग्वेद 10/191/4)
अर्थात हे स्तोताओं (मनुष्यों)! तुम्हारे ह्रदय (भावनाएं) एक समान हों, तुम्हारे
मन (विचार) एक जैसे हो, संकल्प (कार्य) एक जैसे हों, ताकि तुम संगठित होकर अपने
सभी कार्य पूर्ण कर सको।
· अनमित्रं
वो अधरादन मित्रं न उत्तरात्। इन्द्रनमित्रं नः पश्चादनमित्रं पुरस्कृधि।।
(अथर्ववेद 6/40/3) अर्थात हे इन्द्र देव! आप प्रसन्न होकर ऐसी कृपा करें जिससे
उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम दिशाओं में हमारा कोई शत्रु न हो। हमसे कोई द्वेष
न करे।
· प्रजाम्यः
पुष्टि विभजन्त आसते। (ऋग्वेद 2-13-4) अर्थात पोषक धन को प्रजाओं में परस्पर विभाग
करके लोग सुखी रहते हैं।
· मोघमन्नं
विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य। नार्थमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो
भवति केवलादी।। (ऋग्वेद 10/216/6) अर्थात जिनके ह्रदय उदारता रहित (संकीर्ण) हैं
उनका अन्न धन पाना निरर्थक ही है उनका अन्न मृत्यु के समान ही विषैला है। यही
सच्चाई है। जो न तो देवो को हविष्यान्न अर्पित करते हैं न बन्धु-बान्धवों को देते
हैं, जो मात्र स्वयंमेव खाते हैं, व केवल पापान्न को ही ग्रहण करते हैं। यह भारतीय
राजनीति पंचम संकल्प है। “Peaceful co existence”
यद्यपि
वेदनिर्दिष्ट पंचशील का व्यवहार एवं उद्गम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में हुआ है।
परन्तु ये नियम सार्वभौम एवं व्यापक होने से व्यक्ति, परिवार, समुदाय, समाज,
राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में लागू होते हैं। ये सूत्र आधुनिक
काल में रूस के अधिनायक स्टालिन ने सन् 1946 में पंचशील रुप में घोषित किये।
तत्पश्चात सन् 1954 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरु ने
पंचशील नियमों को व्यवस्थित रूप देकर प्रसारित किया। 26 अप्रैल 1955 में
इण्डोनेशिया में हुई वांडुग कान्फ्रेंस में पंचशील का समर्थन हुआ। जिसे बाद में
अन्य देशों ने भी अपनाया।