Wednesday, November 6, 2019

वैदिक विज्ञान एवं व्यवस्था



               पंचशील

वैश्विक धर्म-ग्रन्थ पृष्ठभूमि में वेद का स्थान निर्विवाद रूप से सार्वभौम, सर्वहितकारी एवं सर्वश्रेष्ठ है। वेद में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सत्यमेव जयते, आदि मौलिक एवं महानतम् सिद्धांत पूर्णरूपेण जगत परिव्याप्त है। इन्हीं के अन्तर्गत पंचशील वैश्विक स्तर पर भौतिक सुख एवं शांति हेतु सर्वोत्तम, अपरिहार्य एवं सर्व व्यापक सिद्धांत है। धर्म-प्राण भारतीय संस्कृति के अनुसार पंचशील के वेद निर्दिष्ट पांच आदर्श नियम निम्नवत् हैं। जो भारतीय संविधान एवं राजनीति के आधार अंग हैं।
1.         स्वत्व की रक्षा
2.         अनाक्रमण की नीति
3.         स्वतंत्रता
4.         समानता एवं सहयोग
5.         सह अस्तित्व

1.         स्वत्व की रक्षा
·       व्याचिष्टे बहुपाय्ये यतेमहि स्वराज्ये (ऋग्वेद 5-66-6) अर्थात हम इस विस्तृत और बहु उपायों एवं वीरों से रक्षा करने योग्य स्वराज्य को चलाने का यत्न करें।
·       मागृधः कास्यस्विद् धनम् । ( यजुर्वेद 40-1) अर्थात किसी के धन-अधिकार को मत छीनें।
·       एतां देव सेनाः सूर्य केतवः सचेतसः। अभित्रान् नो जयन्तु स्वाहा।। (अथर्ववेद 5-21-12) अर्थात ये वीर पुरुषों की सेना, जो समान चित्तवाली है और सूर्य के ध्वजा वाली है, वे शत्रुओ को जीतें।
·       सत्यं वृहहतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञं लोकं पृथ्वीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य यत्नयुरु लोकं पृथ्वी नः कृणेतु।। (अथर्ववेद 12-1-1) अर्थात् सत्य, महत्वकांक्षा, नियम पालन, दीक्षा (दृढ़ संकल्प या दक्षता), तप (तितिक्षा), ब्रह्म (संयम या ज्ञान), यज्ञ(देवपूजा, संगतिकरण, दान) यह आठ गुण पृथ्वी को धारण करते हैं। वह जो भूत भविष्य की पालक है, हमारे लिये विस्तृत स्थान देवे। अर्थात् जो अपने देश की रक्षा करना चाहे उसे इन गुणों को अपनाना होगा। वर्तमान भारतीय राजनीति का यह पहला संकल्प है। “mutual respect for each others territorial intequity and sovereighty” इस नियम के पालन के लिये ‘भूमि सूक्त अथर्ववेद 12-1’ और ‘स्वराज्यः सूक्त ऋग्वेद 1-80’ में दिये हुए सिद्धांतों पर चलना पड़ेगा।
2.         अनाक्रमण की नीति
·       माहिंसी तन्वा प्रजाः। (यजुर्वेद 12-32) अर्थात प्रजा के शरीर पर हिंसा मत करो।
·       कायेहि मनसस्यतेअपक्राम परश्चर। परो निऋत्या आचक्ष्व बहुधा जीवतोमनः।। (ऋग्वेद10-164-1) अर्थात् हे पाप संकल्प! दूर हो, परे चला जा! तू दुःखदायी पापवृत्ति के लिये बार-बार कहा करता है, हट जा दूर। इस मंत्र से स्पष्टतः अहिंसा का आदेश है।
·       न मापासो मनामहो नारायसो न जल्हवः। यदिन्न्विन्द्रं वृषणां सचा सुते सखाय कृणवामहै।। (ऋग्वेद 8-61-11) अर्थात हम पापी होकर विचार नहीं करते। हम यह भी नहीं विचारते कि दूसरों को अधिकार नहीं दिया जावे। हम प्रकाश या ज्ञान से शून्य नहीं हैं। जब-जब भी हम लोग ऐश्वर्यवान एवं बलवान इन्द्र को अपना सखा बनाते हैं तब यही हमारी नीति रहती है। यह भारतीय राजनीति पंचशील का दूसरा नियम (संकल्प) है। यथा- “Mutual non-agression”
3.         स्वतंत्रता
·       योअस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्मे दध्मः (अथर्ववेद 3/27/1-2) अर्थात जो हमारे साथ द्वेष करता है तथा जिससे हम विद्वेष करते हैं उन रिपुओं को हम आप के नियंत्रण में डालते हैं।
·       अदीनाः स्याम शरदः शतम्...........................(यजुर्वेद 36-24) अर्थात हम सौ वर्षों या अधिक वर्षों तक दीनता रहित होकर रहें, किसी के अधीन न हों । (इस मंत्र में व्यक्तिगत एवं देश दोनों की स्वतंत्रता संरक्षित है)।
·       देवा भागं यथ पूर्वे संजाना नान उपासते। (ऋग्वेद 10-191-2) अर्थात अपने भाग में आई हुई सम्पदा को ज्ञानीजन भोगते हैं, वे छीनाझपटी नहीं करते हैं।
·       तेनत्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद धनम् (यजुर्वेद 40-1) अर्थात अपने भाग में मिली वस्तु का उपभोग करो, दूसरे के अधिकार पर हस्तक्षेप मत करो।
“Non-Interference in each others internal affairs”
4.         समानता और सहयोग
·       ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदोअमध्यमासे महसा विवावृधुः। (ऋग्वेद 5/59/6) अर्थात उन मरुद्गुणओं में कोई ज्येष्ठ नहीं है, कोई कनिष्ठ नहीं है सभी समान हैं।
·       अज्येष्ठासो अकनिष्ठास ए ते स भ्रातरो वावृधुः सौभागाय। (ऋग्वेद 5/60/5) अर्थात उन मरुद्गुणओं में कोई ज्येष्ठ नहीं है कोई कनिष्ठ नहीं है। ये परस्पर भ्रातभाव से संयुक्त रहते है।
·       संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। (ऋग्वेद 10/191-2) अर्थात हे स्तोताओं (मनुष्यों) आप परस्पर मिलजुल कर चलें, परस्पर मिलकर स्नेह पूर्वक वार्तालाप करें। आपके मन समान विचारधारा वाले होकर ज्ञानार्जन करें।
·       सघ्रीचीनान वः स्मनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान। (अथर्ववेद 3/30/7) अर्थात हम आपके मन को समान बनाकर एक जैसे कार्य में प्रवत्त करते हैं और आपको एक जैसा अन्न ग्रहण करने वाला बनाते हैं। यह भारतीय राजनीति पंचशील का चतुर्थ संकल्प है- “Equality and Mutual Benefit”
5.         सह अस्तित्व
·       समानी व आकूतिः समाना ह्रदयामि वः। समानमस्तु वो मनो यथा व सुसहासति।। (ऋग्वेद 10/191/4) अर्थात हे स्तोताओं (मनुष्यों)! तुम्हारे ह्रदय (भावनाएं) एक समान हों, तुम्हारे मन (विचार) एक जैसे हो, संकल्प (कार्य) एक जैसे हों, ताकि तुम संगठित होकर अपने सभी कार्य पूर्ण कर सको।
·       अनमित्रं वो अधरादन मित्रं न उत्तरात्। इन्द्रनमित्रं नः पश्चादनमित्रं पुरस्कृधि।। (अथर्ववेद 6/40/3) अर्थात हे इन्द्र देव! आप प्रसन्न होकर ऐसी कृपा करें जिससे उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम दिशाओं में हमारा कोई शत्रु न हो। हमसे कोई द्वेष न करे।
·       प्रजाम्यः पुष्टि विभजन्त आसते। (ऋग्वेद 2-13-4) अर्थात पोषक धन को प्रजाओं में परस्पर विभाग करके लोग सुखी रहते हैं।
·       मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य। नार्थमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।। (ऋग्वेद 10/216/6) अर्थात जिनके ह्रदय उदारता रहित (संकीर्ण) हैं उनका अन्न धन पाना निरर्थक ही है उनका अन्न मृत्यु के समान ही विषैला है। यही सच्चाई है। जो न तो देवो को हविष्यान्न अर्पित करते हैं न बन्धु-बान्धवों को देते हैं, जो मात्र स्वयंमेव खाते हैं, व केवल पापान्न को ही ग्रहण करते हैं। यह भारतीय राजनीति पंचम संकल्प है। “Peaceful co existence”
यद्यपि वेदनिर्दिष्ट पंचशील का व्यवहार एवं उद्गम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में हुआ है। परन्तु ये नियम सार्वभौम एवं व्यापक होने से व्यक्ति, परिवार, समुदाय, समाज, राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में लागू होते हैं। ये सूत्र आधुनिक काल में रूस के अधिनायक स्टालिन ने सन् 1946 में पंचशील रुप में घोषित किये। तत्पश्चात सन् 1954 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरु ने पंचशील नियमों को व्यवस्थित रूप देकर प्रसारित किया। 26 अप्रैल 1955 में इण्डोनेशिया में हुई वांडुग कान्फ्रेंस में पंचशील का समर्थन हुआ। जिसे बाद में अन्य देशों ने भी अपनाया।



Tuesday, November 5, 2019

भगवान श्री विश्वकर्मा-तुलसी राम शर्मा (से.नि. सेशन जज)



               हमारा जांगिड ब्राह्मण समाज बड़ा ही भाग्यशाली है कि उसने भगवान विश्वकर्मा को अपने आराध्य देव के स्वरूप में ह्र्दयंगम किया। इस संबंध में कई प्रश्न उठ खडे हुये हैं। कोई पूछता है कब और सर्व प्रथम किस ऋषि-महर्षि अथवा अन्य महापुरुष ने यह नामकरण किया? इस नाम को किस मतलब से लिया? इसके पीछे क्या उद्देश्य रहा होगा? अब लोग इसका क्या अर्थ लगाते हैं? क्या ये देव शिल्पी थे? या परम पुरुषोत्तम परमात्मा? इत्यादि-इत्यादि।
बगैर शास्त्रों में उलझे यदि हम अपने आराध्य देव का ज्ञान साधारण मानवीय विचार अथवा स्वतंत्र बुद्धि से अनुमान के आधार पर विश्लेषण करें तो सर्वप्रथम हमारे मन में स्वाभाविक धारणा उत्पन्न होती है कि इस पृथ्वी लोक में मानव कब से विद्यमान है और कब वह सोच-विचार के स्तर पर पहुंचा, कि “विश्व” किसे कहते हैं। मानव ने इस अलौकिक धराधाम पर विचरण कर देखा कि यहां कैसे-कैसे पहाड़ हैं, कैसी जलधारायें (नदियां) बह रही हैं, कैसे-कैसे विशाल समुद्र हैं, कैसे-कैसे गहन जंगल हैं, कैसी समतल कृषि योग्य भूमि है? इस प्रकार पृथ्वी के भूतल का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद मानव ने आकाश की और देखा । उसमें सूर्य-चंद्र-ग्रह-नक्षत्र, तारिकायें देख वह और भी अधिक आश्चर्यचकित  हो गया। यह नजारा देखकर मानव ने इस असीम दृश्य जगत को “विश्व” कहकर पुकारा। इस अत्यंत अद्भूत रचना को देखकर वह विस्मय सागर मे डूब गया। वास्तव में यह सृष्टि अत्यंत विस्मयकारी है ही। यह विस्मयकारी दृश्य देखकर बुद्धि सम्पन्न मानव ने सोचा इस सम्पूर्ण विराट दृश्य को बनाने वाला भी तो कोई होना चाहिये? उसका इतने सुचारु रूप से नियंत्रण-संरक्षण करने वाला भी तो कोई होना चाहिये?
               अब हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि हमारे विद्वान महापुरुषों ने इस भौतिक जगत के निर्माता के रुप में “भगवान श्री विश्वकर्मा” को स्वीकारा। अर्थात “विश्व” से तो यह सर्व दृश्य जगत को समझा और “कर्मा” के रूप में उस अदृश्य शक्ति को स्वीकारा जिसने इस जगत की रचना की जो इसकी सुरक्षा व संचालन कर रहा है। यही विश्व का परमपिता परमेश्वर है, विधाता है, परब्रह्म परमात्मा है, भगवान है। अनन्त नामों से पुकारा जाता है। कोई God  कहता है तो कोई “अल्लाह” कहकर संबोधित करता है।
               यह कहना कठिन नहीं है, किस साल-सम्वत अथवा युग में हमारे मनीषी पूर्वजों ने इस सृष्टि को निर्माता का नामकरण “भगवान श्री विश्वकर्मा” से किया? क्योंकि सृष्टि रचियता का तर्क संगत नामकरण सर्वप्रथम हमारे पूर्वजों द्वारा किया गया, इसमें तनिक भी संदेह नहीं हो सकता। यही कारण है कि प्राचीन काल से भगवान श्री विश्वकर्मा के मन्दिर बनते आ रहे हैं और आज भी बन रहे हैं। हमारा समाज आज भी उसी तत्परता एवं भक्ति भाव से भगवान श्री विश्वकर्मा जी का यजन-पूजन कर रहा है। सर्व समर्थ-सर्व व्यापी-सर्व शक्तिमान परमेश्वर की आराधना का यही तो वैज्ञानिक एवं तर्क संगत मार्ग है।
               हमारी आर्य संस्कृति हजारों साल पुरानी है। एक समय वैदिक काल का बोलबाला था। हमारे वेद-शास्त्रों में उसका विश्द विवरण मिलता है। विदेशी आताताइयों के आगमन से हमारी संस्कृति भारी आघातों को सहती आई है। कई प्राचीन ग्रंथ लुप्त हो गये,कई आताताइयों ने नष्ट कर दिये और कई विदेशी संग्रह कर्ताओं के हवाले हो चुके हैं। यही कारण है कि हमारे समाज के सम्बन्ध में जो प्राचीन पठनीय सामग्री थी वह लुप्त हो चुकी है। उसके अभाव में हमारे समाज की सांस्कृतिक विरासत समाप्त सी प्रतीत होती है। फिर भी प्राचीन नामकरण के आधार पर हम कम से कम इतना अनुमान तो लगा सकते हैं कि हमारे प्रबुद्ध दार्शनिक मनीषी पूर्वज ऋषि-मुनियों ने इस विस्मयकारी अखण्ड ब्रह्माण्ड के आधारभूत इसके रचनाकार, संरक्षक, पालनहार एवं संवरण कर्ता के रूप में देवाधिदेव भगवान श्री विश्वकर्मा जी को ही अपना आराध्य देव चुना। यह परम्परा अनादिकाल से ज्यों की त्यों बिना किसी विकृति या परिवर्तन के आज तक बदस्तूर चली आ रही है और आज भी भगवान विश्वकर्मा जी को भव्य मंदिरों में प्रतिष्ठित कराया जा रहा है और विशुद्घ भक्ति भाव से निरंतर पूजन-यजन किया जा रहा है।
               यह सत्य है कि इसके बाद रचे गये धर्मशास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय के सम्बन्ध में विविध विवेचन हुआ हो। हमारे परम पावन शास्त्र श्री मद् भागवत महापुराण में ही (द्वितीय स्कन्ध पंचम अध्याय) ब्रह्माजी द्वारा ब्रह्मऋषि नारद को सृष्टि रचना का क्रम बताने का उल्लेख है। पुनः तृतीय स्कन्ध अध्याय 5 से 12 में इसी विषय पर विस्तार से चर्चा हुई है। इस प्रमाणिक सद्गन्थ में भी एक स्थान पर भगवान विश्वकर्मा के सम्बन्ध में उल्लेख है। लेकिन उनके प्राकट्य के विषय में कोई चर्चा देखने में नहीं आती। अष्टम स्कन्ध अध्याय 13 में यह उल्लेख अवश्य है कि भगवान सूर्य देव की दो पत्नियां संज्ञा व छाया थीं वे भगवान विश्वकर्मा जी की पुत्रियां थीं। आगे चल कर उनकी सन्तानों के विषय में चर्च मिलती है।
               भले ही दीर्घ कालीन पौराणिक कथायें हमारी अनवरत मान्यताओं से मेल नहीं भी खाती हो फिर भी यह जानकर हमारा विश्वास और अधिक सुदृढ़ हो जाता है  कि पुराणों में भी कहीं-कहीं हमारे आदिदेव भगवान श्री विश्वकर्मा जी का किसी न किसी रूप में उल्लेख अवश्य मिलता है। इससे स्पष्ट संकेत भी मिलता है कि प्रचीनतम काल से यानी इन प्राचीन धर्म शास्त्रों से भी पहले हमारे आराध्य देव मानव समाज के मानसिक पटल पर विद्यमान थे। इस सृष्टि के परमपिता परमेश्वर के रूप उनके प्रति हमारी मान्यता शत-प्रतिशत शास्त्र सम्मत होते हुए वैज्ञानिक दृष्टि  से भी सर्वथा उचित है।
-तुलसी राम शर्मा (से.नि. सेशन जज)
जयपुर फोन – 0141-2706129


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महापुरुषों से प्रेरणा लेकर समाजोत्थान की दिशा में आगे बढें।


कोई भी व्यक्ति अथवा समाज अपने अतीत और पूर्वजों से प्रेरणा लेता है और पूर्वजों, महापुरुषों और ऋषि मुनियों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों और उनके द्वारा बताये गए रास्तों पर चल कर ही प्रगति के सोपान तय करता है। लेकिन विश्वकर्मा समाज के लोगों ने इस ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जिसके कारण हम लोग आजादी के 70 वर्षों के बाद भी अपने आपको अति पिछडा वर्ग में पाते हैं।
स्मरण रहे कि आदि शंकराचार्य जो विश्वकर्मा वंशी रहे ने देश के भूभाग के चारों कोनों पर चार पीठों की स्थापना की और समाज को संगठित कर आध्यात्मिक शिखर पर ले जाने का कार्य किया। उनके बाद अनेकों शंकराचार्य भी विश्वकर्मा वंशी रहे। जिन्होंने समाज को दिशा दी।
आध्यात्मिक क्षेत्र में देश ही नहीं विदेशों में भी अपना झंडा गाडने वाले गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्री राम शर्मा ने समाज में आयी विकृतियां दूर कर आध्यात्मिक चेतना जाग्रत कर संगठित करने का कार्य किया और धार्मिक अनुष्ठानों में अपना एकाधिकार बनाए रखने वाले पोंगा पण्डितों का वर्चस्व तोड़कर समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को पांण्डित्य कर्म की शिक्षा दी। आज गायत्री परिवार से जुडे हजारों आचार्य रूढि वादिता और अन्ध विश्वास को चुनौती देकर कर्मकांड सम्पादित करा रहे हैं।
सामाजिक क्षेत्र में काम कर हिन्दुओं को संगठित करने वाला विश्व का सबसे बडा स्वयं सेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ है जिसकी स्थापना वर्ष 1925 में मा. केशव राम बलिराम हेडगेवार ने विजयादशमी के दिन मात्र 5 स्वयं सेवकों को साथ लेकर की थी। जो आज अक्षय वट बन चुका है जिसके कारण आज देश में ही नही विश्व में हिन्दुओं का मान-सम्मान और स्वाभिमान बढ़ा है।
राजनैतिक क्षेत्र में मा. बाल ठाकरे जी का नाम बडे श्रद्धा से लिया जाता है। वे हिन्दू हितों के बहुत बडे रक्षक थे और उन्हें महाराष्ट्र का शेर भी कहा जाता था। मा. बाल ठाकरे ने जो शिव सेना गठित की उसके स्वयं सेवकों ने मुम्बई और महाराष्ट्र में हिन्दू और राष्ट्र विरोधियों के दिमाग ठिकाने लगा दिये। शिवसेना आज किसी परिचय की मोहताज नहीं है।
उपरोक्त चारों उदाहरण देने का मेरा आश्य है  कि हम समाज के सभी लोग यदि पूर्वाग्रह को त्याग कर वास्तव में विश्वकर्मा समाज को परम वैभव के शिखर पर ले जाना चाहते है तो हमें उक्त महापुरुषों के जीवन दर्शन, आदर्शों और कार्मों से प्रेरणा लेनी होगी और स्वार्थपरता और दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा तथा इन महापुरुषों के बताये रास्ते का अनुसरण करना होगा। कहा भी गया है कि महाजनों ऐन गतः सो पन्था । अतः इन महापुरुषों का अनुसरण कर हम समाज को विकास के रास्ते पर ले जा सकते हैं।
विश्वकर्मा एकीकरण अभियान का 9 जून 2002 को काफी गहन मनन और चिन्तन के बाद प्रारम्भ किया गया। इस अभियान के मूल में गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्री राम शर्मा जी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशव राव बलिराम हेडगेवार और शिवसेना के संस्थापक मा. बाल ठाकरे की प्रेरणा और चिन्तन है। जिसका बहुत गहराई से अध्ययन और मनन करने के बाद विश्वकर्मा समाज के तेज तर्रार आई.ए.एस. अधिकारी मा. श्री जे.एन. विश्वकर्मा ने सेवा निवृत्ति के बाद विश्वकर्मा एकीकरण अभियान का सूत्रपात किया। यह अभियान 9 जून 2018 को अपना 16 वां स्थापना दिवस मनाने जा रहा है। आज उत्तर प्रदेश ही नहीं देश भर में विश्वकर्मा एकीकरण अभियान एक जाना पहचाना स्वयं सेवी संगठन है जो विश्वकर्मा समाज को परम वैभव के शिखर पर ले जाने के लिए सतत प्रयत्नशील है। विश्वकर्मा एकीकरण अभियान गैर राजनीतिक अभियान है लेकिन इसका उद्देश्य विभिन्न माध्यमों से विश्वकर्मा समाज की सत्ता में उसकी संख्या बल के अनुरूप भागेदारी सुनिश्चित कराना है जो आजादी के 70 वर्षों के बाद भी विश्वकर्मा समाज को नहीं मिल सकी और प्रत्येक स्थान पर विश्वकर्मा समाज उपेक्षा का शिकार रहा है। जहां कहीं विश्वकर्मा समाज ने बुलंदियों को छुआ है उसमें उनकी व्यक्तिगत बुद्धिमत्ता और कौशल रहा है। सरकारी स्तर पर हमारे लोग उपेक्षा का शिकार रहे। चाहे रेड ब्रिगेड की संस्थापक उषा विश्वकर्मा रही हों या जिम्नास्ट दीपा कर्माकर या फिर आई.ए.एस , आई.पी.एस. और अन्य शासकीय सेवाओं में विश्वकर्मा समाज के चमकते सितारे हों। सभी ने अपने बुद्धि बल, त्याग और तपस्या से बुलंदियों को छुआ है।
राजनीतिक रुप से उपेक्षा का शिकार विश्वकर्मा समाज की सत्ता में भागेदारी वक्त की सबसे बडी जरुरत है। क्योंकि वर्तमान परिवेश में बिना राजनीतिक संरक्षण के विकास की  कल्पना करना बेमानी है। क्योंकि आज प्रत्येक स्तर पर राजनीतिक दखलंदाजी बढ़ चुकी है और राजनीति में हमारा दखल शून्य है इसलिये हमारा समाज आजादी के 70 साल बाद भी पीछे है।
विश्वकर्मा समाज के शिक्षाविदों, नौकरशाहों, पुलिस व प्रशासन से सेवा निवृत्त अधिकारियों, व्यापारीगणों व उद्योगपतियों और कवि, लेखक, पत्रकार, डाक्टर, इंजीनियर सभी लोगों को अन्तर्मन से समाजोत्थान में यथा सम्भव सहभागिता अदा करनी चाहिए और प्रत्येक परिवार से एक सदस्य को  विश्वकर्मा एकीकरण अभियान में स्वयं सेवक के रुप में जोडने के लिये प्रेरित करें। हमारा प्रयास प्रत्येक ग्राम सभा प्रत्येक मोहल्ले प्रत्येक नगर, उप नगर और महानगर तक अभियान की उपस्थिति दर्ज कराना है। जिस दिन हम प्रत्येक विधान सभा क्षेत्र में स्वयंसेवकों की एक हजार संख्या जुटाकर सक्रिय कर देंगे। उस दिन किसी राजनैतिक दल का साहस नहीं होगा कि  वह विश्ववकर्मा समाज की उपेक्षा कर सके। क्योंकि अभियान के स्वयं सेवक जिस प्रत्याशी के पक्ष में सक्रिय हो जायेंगे। विजय श्री उसका वरण करेगी। और स्वयं सेवक उसी के पक्ष में सक्रिय होगें जो विश्वकर्मा समाज की संख्या बल के अनुरुप सत्ता में भागेदारी के लिए संकल्पित होगा। तो आइये, आज ही हम विश्वकर्मा एकीकरण अभियान से जुडें और विश्वकर्मा समाज की सत्ता में भागेदारी के लिये अग्रसर हों।